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Home आलेख

पूर्वजों के प्रति अखण्ड आस्था है पितृपक्ष

admin by admin
September 21, 2021
in आलेख, धर्म
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पूर्वजों के प्रति अखण्ड आस्था है पितृपक्ष
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श्राद्धपक्ष –
पाखंड या आस्था
लेख-
श्राद्ध का मूल अर्थ श्रद्धा से जुड़ा है यह एक विश्वास है ,
“स्कंद पुराण के अनुसार”
श्राद्धकर्ता को यह अटल विश्वास होता है कि वह जो कुछ भी ब्राह्मण के निमित्त दान कर रहा है वह पितरों को अवश्य ही मिलेगा और इसेके लिए वह श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर पितृ एवं अपने पूर्वजों के लिए तर्पण एवं पिंडदान करता है। मनुष्य मात्र के ऊपर 3 दिन ऋण होते हैं,1 देवऋण
2 पितृऋण 3 ऋषिऋण।
देवऋण को हम धर्म कार्य करके धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञ, हवन आदि कर्मकांड करके उतार सकते हैं। पितृ ऋण को हम अंतिम संस्कार के बाद भी श्राद्ध पक्ष में तर्पण विधि आदि के द्वारा उन्हें तृप्त कर हम इस ऋण से उऋण होने का प्रयास करते हैं, ऋषिऋण को हम विद्या दान करके अच्छे कार्यों को करके और अपने गुरु के प्रति कृतज्ञ होकर अपने कर्तव्यपरायणता का परिचय देकर इस ऋण से मुक्त हो सकते हैं, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में इन तीनों ऋणों का विशेष महत्व होता है। विष्णु पुराण –
में कहा भी गया है कि जो व्यक्ति श्रद्धा युक्त होकर नाम एवं गोत्र का उच्चारण करके पितृगण (पूर्वजों)को जो दान देता है भोजन इत्यादि समर्पण करता है तो उसके पितरों को वो वैसे ही प्राप्त होता है । यदि आप किसी को मनीआर्डर या पत्र भेजते हैं यदि वह उसे नहीं मिलता तो पुनः आपके पास ही लौटकर आता है वैसे ही श्राद्ध पक्ष में किया गया दान आपको ही विशेष लाभ देता है, यंत्रों से भी ज्यादा प्रभाव मंत्रों का होता है यह सर्वविदित है। मैं आपको एक छोटी सी कहानी से अवगत करवाऊंगी यहां जिसका साक्ष्य हमें महाभारत में मिलता है, कहानी दानवीर कर्ण की है दानवीर कर्ण ने धन आदि तो दान किया पर अन्न दान को सदैव सूक्ष्म मान कर उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखा कहा जाता है कि स्वर्ग लोक में जब दानवीर कर्ण गए तब उन्हें अपने द्वारा दिया हुआ दान सोना, चांदी, आभूषण, वस्त्र, पैसा आदि तो मिला पर खाने के लिए भोजन ,मिठाई इत्यादि कुछ नहीं मिला जब कर्ण को भूख लगी तो यमराज ने उन्हें अन्य दान देने से मना कर दिया यह कह कर कि तुमने कभी भी अन्य दान नहीं किया है तो मैं तुम्हें कैसे दूं, पश्चाताप करने के लिए कर्ण ने यमराज से 15 दिन के लिए धरती पर जाने की अनुमति मांगी और यमराज जी ने उनके सद कार्यों और सद कर्मों को देखकर उन से प्रसन्न होकर उन्हें 15 दिन के लिए धरती पर भेजा कहा जाता है कि दानवीर कर्ण ने साधु-संतों को ब्राह्मणों एवं गरीबों को अन्न – जल से तृप्त किया श्राद्ध एवं तर्पण आदि भी किया और जब लौटकर वह स्वर्ग लोक आए तब उन्हें यह सब प्राप्त हुआ। धर्मराज जी ने उन्हें वरदान दिया कि जो भी 15 दिन तक श्राद्ध पक्ष में तर्पण श्राद्ध आदि करेगा और जिसके भी निर्मित्त् करेगा वह उसे अवश्य मिलेगा। गुरुड़ पुराण में कहां गया है कि अमावस्या के दिन पितृ वायु रूप में दरवाजे पर खड़े होते हैं सूर्यास्त तक वह वहीं खड़े होते हैं यदि उन्हें दान न मिले तो वह बहुत दुखी होते हैं वे भूखे प्यासे व्याकुल होकर अपने स्वजनों से श्राद्ध की अपेक्षा करते हैं नहीं मिलने पर भी दुखी होते हैं निराश होकर वे अपने लोक वापस लौट जाते हैं। जब हम महापुरुषों की जयंतियां, तिथियां और देवी-देवताओं की जयंती मनाते हैं तो श्राद्धपक्ष हम श्रध्दा से अपने पितरों के लिए क्यों नहीं मना सकते हैं। हमारे द्वारा मनाए गए जन्माष्टमी, गणेशोत्सव नव दुर्गा की आराधना देवी देवताओं तक पहूंचते हैं तो पितरों के निमित्त किया हुआ श्राद्ध ,दान, दक्षिणा ब्राह्मणों को भोजन, क्या उनके तहत् नहीं पहूंचता है। श्रद्धा से किया हुआ दान तर्पण आदि पूर्वजों को वैसे ही प्राप्त होता है। जैसे कि भारत का रुपया अमेरिका में जाकर डॉलर में परिवर्तित हो जाता है और दुबई का दिनार भारत में रुपया में बदल जाता है जब छोटी सरकारें मानव निर्मित सरकारें यह कार्य कर सकती तो , विश्व का रचयिता ईश्वर हमारे द्वारा ब्राह्मणों को करवाया गया भोजन हमारे पितृ तक नहीं पहुंचता सकतें हैं? वह उन्हें मिलता है, क्योंकि पूर्वज जो है वह भाव के भूखे होते हैं वह हमारी श्रद्धा से और हमारे सच्चे मन से किए गए कार्यों से प्रसन्न होकर तृप्त होते हैं और हमें आशीर्वाद देकर जाते हैं। श्राद्धमहीमा में लिखा भी गया है जो अपने पितरों का श्राद्ध, श्रद्धा पूर्वक करते हैं उनके पित्र संतुष्ट होकर उन्हें आयु, धन ,संतान, स्वर्ग ,राज्य, मोक्ष व अन्य सौभाग्य प्रदान करते हैं। श्राद्ध से श्रद्धा जीवित रहती है और श्रद्धा को प्रकट करने के कार्य को ही श्राद्ध कहते हैं, यह एक परंपरा भी है संस्कार भी है जो हम अपने आने वाली पीढ़ियों को देकर के जाने वाले हैं, इसे मनाने से हमारी नई पीढ़ी में भी अपने बुजुर्ग एवं पूर्वजों के प्रति स्नेह लगाव उत्पन्न होगा जो भविष्य के लिए अति आवश्यक है, परंपराओं को जीवित रखने के लिए समाज में बड़े बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भाव पैदा करने के लिए श्राद्ध आदि कर्म एवं कार्य करना चाहिए।

डॉ टीना राव,
पाली राजस्थान से🙏🏻

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