साहित्य के पुरोधा, झारखंड राज्य के गौरव, प्रेमचंद जी के प्रिय कथाकार राधाकृष्ण जी के आज 18 सितंबर को जन्मदिन पर विशेष –
संस्मरण
अनिता रश्मि
प्रेमचंद के प्रिय कथाकार राधाकृष्ण जी और वे मुलाकातें
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साहित्य का इतिहास और उसकी पड़ताल राधाकृष्ण की चर्चा के बिना पूरी हो ही नहीं सकती है। राधाकृष्ण जी ने विपुल साहित्य रचा है यथा- उपन्यास, कहानी, आलेख, नाटक, रूपक, एकांकी, हास्य-व्यंग्य जैसी अनेक विधाओं में।
उनकी ख्याति कथाकार के रूप में कैसी थी, यह आज हम सबको पता है। प्रेमचंद भी इनकी कथाओं से बेहद प्रभावित थे। प्रेमचंद ने राधाकृष्ण जी के बारे में कहा था कि जब भी कथाकारों की बात होगी, राधाकृष्ण पहले पाँच में शामिल रहेंगे।… कितनी बड़ी बात… यूँ ही नहीं कहा था।
वे प्रेमचंद एवं उनकी पत्नी शिवरानी देवी के बहुत करीबी हो गए थे। सामान्य सादा जीवन, उच्च विचार उनकी सबसे बड़ी पूँजी थु। आर्थिक संकट से आक्रांत लेकिन साहित्य संपदा से लबालब भरे राधाकृष्ण जी की जन्मशती बीत चुकी है। हमें उनके बारे में नवीन पीढ़ी को सदा बताते रहना चाहिए। नहीं तो सब मेरे जैसे ही मूर्ख साबित होंगे।
छात्र जीवन में उनसे मिलने का सुखदायी अवसर मिला था। जब-तब वे मुलाकातें याद आ ही जाती हैं।
प्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था चतुरंग के द्वारा हमारे छोटानागपुर गर्ल्स स्कूल, राँची में ही विद्यालय स्तरीय काव्य पाठ प्रतियोगिता का कार्यक्रम रखा गया था। ।
मैंने नेपाली की कविता का पाठ किया था –
कब बरसेगा रेती में घन
आली री, बोलो तो…
वहाँ उपस्थित कुछेक महानुभावों के वक्तव्य सुने। संभवतः श्रवण कुमार गोस्वामी जी भी थे। एक सरल व्यक्तित्व के स्वामी अध्यक्षीय वक्तव्य देने के लिए खड़े हुए। बेहद सीधे, सच्चे, सरल से धोती-कुर्ताधारी उस व्यक्ति ने ध्यान खींच लिया। सामान्य कद-काठी, पतले-दुबले…लगभग क्षीणकाय! वे बोलते रहे, हम सुनते रहे। प्रभावी उपस्थिति, प्रभावी वक्तव्य! सादे, सहज उद्बोधन में कुछ था, जो दसवीं की इस छात्रा को खींच रहा था।
दूसरी मुलाकात राँची के यूनियन क्लब, थड़पखना में उसी संस्था के द्वारा आयोजित सर्व भाषा वाद-विवाद प्रतियोगिता में। निर्णायकगण में वे ही सरल व्यक्तित्व के स्वामी सामने। मेरी तबीयत बहुत खराब थी, फिर भी तर्क रखते हुए हिंदी में अपनी बात रखी। वे बड़े गौर से सभी को सुनते रहे।
दोनों में प्रतियोगिताओं में प्रथम पुरस्कार का निर्णय उनके द्वारा ही। सच में कुछ था, जो अपरिचय के बावजूद उनसे जोड़ रहा था। यह कौन सा तार था, जो अब आई एस सी की छात्रा को समझ तो नहीं आया था लेकिन उनका परिचय जानने के लिए उत्सुक हो उठी।
पुरस्कार समारोह के अवसर पर मैंने संस्था के किसी सक्रिय सदस्य से पूछा था,
” वे कौन थे? आज आए नहीं? ”
” आप नहीं जानतीं? वे लाल बाबू थे। नहीं आ पाए। ”
” कौन लाल बाबू? ”
” अरे! अपने राधाकृष्ण जी। आप उन्हें नहीं जानतीं? उन्हें सब लाल बाबू ही कहते हैं। ”
आँखों में अपरिचय अब भी। लेकिन आँखों के समक्ष घूम गया उनका व्यक्तित्व। अरे! अभी तो महिलाओं की साहित्यिक संस्था ‘ सुरभि ‘ की गोष्ठी में उन्हें अध्यक्षता के लिए आमंत्रित करने की बात साहित्यकार डाॅ. ऊषा सक्सेना दी ने बताई थी।
उनके बारे में और जानने की इच्छा बलवती हो गई। होती गई। पढ़ी थी कोर्स में उनकी व्यंग्य रचना। इसने खूब हँसाया था। व्यंग्य की तीक्ष्ण धार ने भी प्रभावित किया था। शीर्षक ठीक से याद नहीं। शायद ‘अखबार में नाम’…शायद।
फिर तो जगह-जगह ढूँढकर पढ़ती रही लाल बाबू को। घोष-बोस-बनर्जी-चटर्जी के व्यंग्य को भी। राधाकृष्ण जी के व्यंग्यकार के लिए यह नाम शायद सही था। शुरूआत में वे इसी नाम से लिखते थे। प्रारंभ में ही इसी नाम से हास्य व्यंग्य में भी प्रचूर साहित्य रचा उन्होंने। बंगला साहित्य से काफी प्रभावित राधाकृष्ण जी के लेखन की शुरुआत सोलह वर्ष की आयु में ही हो गई थी। एम. ए. में चल रहा था उनका उपन्यास ‘रूपांतर’। किसी से लेकर उसको बाद में पढ़ा।
अगली मुलाकात आकाशवाणी राँची में युवा वाणी में कविता पाठ कर बाहर आते वक्त गेट पर हुई। उन्होंने तत्काल पहचान लिया और देर तक हाल-चाल लेते रहे। विश्वास नहीं हुआ कि लगभग एक वर्ष बाद भी पहचान गए। अपरिचय की डोर थोड़ी ढीली हुई।
आकाशवाणी आने-जाने के क्रम में दो-चार मुलाकातों ने मन में उनके घर जाने की इच्छा जगा दी थी। उन्होंने पता देकर आने का निमंत्रण जो दिया था।
मैंने पाया है कि राँची के जितने साहित्यकार थे, सबमें एक मासूम विनम्रता थी। बाकियों से तो बहुत-बहुत बाद में भेंट हुई थी। हाँ, भारत यायावर भाई घर आते थे। लेकिन उस समय वे साहित्य की दुनिया में नए थे।
एकमात्र सुप्रसिद्घ कलमजीवी राधाकृष्ण जी से ही भेंट हुई थी। और उनकी वह सदाशयता, नम्रता, अपनापन ने मन मोह लिया था।
उन दिनों इस छात्रा की मुलाकात उनके विपुल साहित्य से नहीं हो पाई थी। पर बहुत नाम सुना कि बहुत सार्थक काम किया है उन्होंने। विविधवर्णी लेखन से लेकर संपादन तक। ‘आदिवासी’ पत्रिका उनके संपादन में काफी चर्चित पत्रिका के रूप में उभरी।
हंस, कहानी, माधुरी के संपादन से भी संबद्ध रहे। उन्हें इन पत्रिकाओं से जोड़ने का कार्य उनकी प्रतिभा के कायल रहे प्रेमचंद ने किया था। लेखक ही नहीं, संपादक भी वे आला दर्जे के थे।
वे आकाशवाणी में भी कार्यरत रहे। बाद तक आकाशवाणी उनकी कर्मठता और सदाशयता का कायल रहा। फिल्म की ओर भी रूख किया था। ढंग से बात जमी नहीं तो लौट आए।
वे सुविधाओं में पले-बढ़े रचनाकार नहीं थे। उन्होंने सृजन के लिए शहर और महानगर के शोरगुल से भागकर पहाड़ों की शांति-एकांत की शरण नहीं ली। बल्कि बस की कंडक्टरी के दौरान भयंकर शोरगुल के मध्य बस की सीट पर ही अनगिन उम्दा रचनाओं का सृजन किया। यह जानकारी मुझे शैलेश मटियानी जी की याद दिलाती है।
उनका लेखन कई बार कहावतों में भी ढल गया। जैसे – ‘बन्नू बाबू की चाय’…इसके पीछे की कहानी उनके बेटे सुधीर कुमार लाल जी ने सुनाई कि राँची के बन्नू बाबू वकील से संबंधित है यह कथा। पटना की गुलाम सरवर जी द्वारा संपादित पत्रिका ‘संगम’ में प्रकाशित हुई तो पूरे बिहार में प्रचलित हो उठी यह कहावत देशभर में बोली जाने लगी।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी, निर्भीक लाल बाबू स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलनकारियों के प्रति भी उतने ही उदार थे। उनके घर पर आंदोलनकारी भोजन करते थे। कई बार वे परचे का मजमून लिखते। उसे ही बागी लोग बाँटते थे। विदाई के वक्त रोटी आदि बनाकर घर से दी जाती। बागियों ने अपने हथियार, बमादि भी उनके घर में छुपाकर रखे। कितना खतरा था पर लाल बाबू हर खतरे को उठाने के लिए सहर्ष तैयार थे। मतलब स्वतंत्रता आंदोलन में भी उनका योगदान अप्रतिम था। ऐसे व्यक्तित्व से मिलना सच में मेरे लिए बेहद सुखद था।
एक मुलाकात की याद अब तक जेहन में है –
स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद राँची आकाशवाणी में एक रिकॉर्डिंग खत्म कर लौटते समय रास्ते में पड़नेवाले भटाचार्य जी लेन (अब राधाकृष्ण लेन) में स्थित उनके घर पहुँच गई।
अब भी याद है – सफेद, खपरैल का पाएदार सामान्य मकान, कुछ सीढ़ियाँ, फिर छोटा सा बरामदा, बाईं तरफ एक कोठरी, कोठरी में एक चौकी और चौकी पर लेटे राधाकृष्ण जी… एक बड़े रचनाकार, संपादक, प्रेमचंद के चहेते।
मैं चौकी पर ही बैठ गई। वे बहुत बीमार थे। कभी खाँसी, कभी हँफनी। और भी दुबले लगे। फोन का जमाना तो था नहीं। अतः समय लेकर नहीं, अपनी सुविधानुसार गई थी… एक पंथ, दो काज… फिर भी वे बात करते रहे। आत्मीयता ऐसी कि
” तुम चर्च रोड में रहती हो, वहाँ से आई हो? मैं चर्च रोड कई बार गया हूँ। वहाँ मेरे एक परिचित हैं… शरद बाबू…। ”
“… वे मेरे चाचा हैं। ठीक घर के सामने रहते हैं। ”
” अरे वाह! भई, तुम तो अब मेरी अपनी हुई। ”
उन्होंने वैसी रूग्णावस्था में भी अपने बेटे शिशिर जी से मिलवाया। बेटी रीता जी के बारे में बताया कि वह यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करती है। अभी काॅलेज गई है। थोड़ी देर और रूको, मिलकर जाओ। ”
” आप बीमार हैं। फिर मिल लूँगी। आराम करें।
” नहीं। बैठो थोड़ी देर। अच्छा लग रहा है। तुमने बीएससी पास किया है ना, बाॅटनी लेकर आगे भी पढ़ाई करो। पी जी में मेरे परिचित हैं। मैं कह दूँगा। ”
ऐसी आत्मीयता कि एक सामान्य छात्रा अभिभूत।
” आपका इंटरव्यू लेने की मेरी बहुत इच्छा है। एक फोटो भी साथ में खिंचाना चाहती हूँ। ”
” हाँ! हाँ! मैं भी। मैं आऊँगा चर्च रोड, तब खिंचा लेंगे साथ। ”
साथ में कैमरा था नहीं, उन दिनों मोबाइल का साथ नहीं। अतः उस वक्त को भविष्य पर टाल दिया। वह समय टल ही गया। भविष्य वर्तमान में न बदल सका। मन की मन में रही। छह-सात महीने बाद ही वे गोलोकवासी।
हाँ, मेरे आग्रह पर मेरी डायरी में उन्होंने हस्ताक्षर किए थे। मोतियों से अक्षर… थोड़ा खींचकर लिखा ” राधाकृष्ण!
” अब मुझे चलना चाहिए। ”
उनसे अनुमति लेकर बाहर आ तो गई पर वे देर तक एवं दूर तक साथ रहे… अब तक।
फोटो में साथ होने की अधूरी कामना अधूरी ही रही। उनकी बीमारी बढ़ती गई। और 3 फरवरी 1979 में खत्म… सब खत्म! जैसे एक अध्याय का अंत। जैसे एक युग का अंत। जैसे एक सादगी, एक निश्छलता का अंत।
लेकिन वह अंत कहाँ, शुरूआत थी। साहित्यकार अपनी रचनाओं में, अपने कर्म में जिंदा रहते हैं। वे तो जीते जी लोगों का दिल जीत चुके थे। केवल पाठकों का ही नहीं, मूर्धन्य साहित्यकारों का भी। फिर भी जितने के हकदार थे, वह नहीं मिल पाया था। उनके बाद राधाकृष्ण से अनभिज्ञ अनेक साहित्यप्रेमियों ने उन्हें पहचाना-जाना।
राँची एक्सप्रेस ने राधाकृष्ण साहित्य पुरस्कार योजना आरंभ किया, जिसमें झारखंड के नामचीन लेखक सम्मानित किए गए। शोध ग्रंथों में उनकी चर्चा आम है।
देर से सही अनेक पत्रिकाओं के राधाकृष्ण विशेषांक आए। श्रवण कुमार गोस्वामी जी, भारत यायावर जी सहित कईयों ने उनके योगदान को पुस्तकों में समेटा। पर राष्ट्रीय फलक पर उनकी जन्मशती चुपचाप गुजर गई, यह बहुत तकलीफदेह है। हाँ, जसम ने राँची में धुमधाम से मनाया था। आलोचक रविभूषण जी के आमंत्रण पर उक्त समारोह में शिरकत करने पर उनकी बेटी रीता जी से भी पहली बार मिली। एकबारगी उनकी वह पेशकश याद आ गई – ” रीता से मिलकर जाओ। ”
मेरे मन में एक कील गड़ी रह गई कि हम साथ तस्वीर नहीं खींचा पाए। वे मेरे घर चर्च रोड नहीं आ पाए।
सालों तक वह डायरी जगह-जगह साथ चलती रही। चतरा, संथाल परगना के बरहरवा, राँची, पाकुड़…।
वही मोतियों सा अक्षर… वही राधाकृष्ण का विस्तार! क्षीणकाय राधाकृष्ण जी पर अनुभव और रचनाशीलता का दायरा विस्तृत…बहुत विस्तृत! ऐसे मूर्धन्य कलमजीवी कभी विस्मृत नहीं होते।
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