आज की हस्ताक्षर में अजमेर प्रभारी और प्रख्यात राष्ट्रीय कवयित्री डॉ वीणा शर्मा सागर जी किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। राष्ट्रीय चेतना और ओज की सशक्त हस्ताक्षर वीणा जी वाकई में शब्दों की सागर है। जितना बड़ा व्यक्तित्व है उतनी ही सरल सहज स्वभाव की हैं। अबतक ऑनलाइन कार्यक्रमों में कई बार की मुलाकातें हुई मगर हरबार अधूरी ही लगी। इनके शब्दों के महासागर में कई दफा गोता लगाने के बाद भी तिश्नगी है कि जाती नहीं। अब तो शायद राजस्थान में साहित्योदय का कार्यक्रम हो तो सूखे रेगिस्तान में मूसलाधार बारिश हो। कई सम्मान इनके व्यक्तित्व को छूकर गौरवान्वित हो चुके हैं। ओज की स्वर वीणा जी जब ग़ज़ल कहती हैं तो हर काफ़िया का रदीफ़ हो जाने को मन करता हैं। शानदार आवाज़ और बेहतरीन ग़ज़लों की सागर वीणा जी की प्रस्तुत दो ग़ज़ल क्या कहने! औरों की बेटियों पर उनकी रही नज़त,
अपनी रखी थी सागर सबने संभाल कर।। उफ्फ!!क्या तमाचा मारा है लोगों मानसिकता पर। दूसरी ग़ज़ल देखिये- हर धार एक विपरीत जा वो निखर गया तो निखर गया।
इसी तरह आप अपने शब्द सागर से नवरत्नों को निकाल साहित्योदय को सजाती रहें।
लिखना तो बहुत है लेकिन
सागर को भला कौन थाह पाया है?
जितना डूबा उतना ही उतराया है .
🙏🙏🙏
इति शुभम
पंकज प्रियम
संस्थापक -अध्यक्ष
राष्ट्रीय कवयित्री वीणा शर्मा ‘सागर’
राष्ट्रीय चेतना ,और ओज की कलम, देश के कई राज्यों में काव्यपाठ कर चुकी हैं । देश के नामी टीवी चैनल्स दूरदर्शन, ज़ी न्यूज़ ,आजतक इत्यादि पर काव्यपाठ ।
जम्मू के उपमुख्यमंत्री डॉ निर्मल सिंह ,पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिन्दर सिंह, उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीश रावत, हिमाचल के राज्यपाल आचार्य देवव्रत, आचार्य धर्मेन्द्र इत्यादि के हाथों कई बार कई जगह सम्मानित हो चुकी हैं ।कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया, कई पत्र पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित ।
ग़ज़ल-
देखा नही कभी भी चश्मा उतारकर
उसने सभी को परखा सिक्का उछालकर ।
अजमा रहा है कबसे वो मेरी ताकतें
क्यूँ बार बार खुद को ख़तरे में डालकर ।
वो मौत के जबड़ों से लाया था ज़िन्दगी
हैरत को रख दिया था हैरत में डालकर ।
लोहे को लोहा काटता है ये दिखा दिया
तूफान से लड़ने को तूफान पालकर ।
उसने बढाई मुश्किलों की मुश्किलें सदा
संकट को मार डाला संकट में डालकर
डर को डराया उसने बाज़ार में सदा
खम ठोंक दी हमेशा आँखे निकालकर ।
वो सारी परिशानियों को हँसके पी गया
वो गम को खा गया है सकते में डालकर।
उसने निभाई रंजिश ख़ंजर भी मारके
उसने निभाई दोस्ती ख़ंजर निकालकर ।
औरों की बेटियों पर उनकी रही नज़र
अपनी रखी थी ‘सागर’ सबने संभालकर ।
वीणा शर्मा ‘सागर’
ग़ज़ल-2
थी लाख उस पर बंदिशे वो संवर गया तो संवर गया
गम जानलेवा था मगर वो उबर गया तो उबर गया ।
वादा ही था जो किया कभी उसने भी आकर तैश में
मैं मरुँ जिऊँ मुश्किल मेरी वो मुकर गया तो मुकर गया ।
वो ज़िक्र करते ही रह गये कि हैं रास्ते मुश्किल बड़े
था सनक में या के जुनून में वो गुज़र गया तो गुज़र गया ।
अब करता है जाँ निसार भी लेता है कहना मान भी
ये निगाह हो या कि दिल मेरा वो उतर गया तो उतर गया ।
मैं थाम कर रक्खा किया धागा भी माला भी मगर
था छेद उसके सीने में वो बिखर गया तो बिखर गया ।
है नाम पर ईनाम भी हैं दिवारों पर पर्चे लगे
फिर बनके साधू भले ही अब वो सुधर गया तो सुधर गया ।
ना हवा ना पानी न रोशनी जीने के नाम पे कुछ न था
हर धार के विपरीत जा वो निखर गया तो निखर गया ।
वीणा शर्मा ‘सागर’
आज के रचनाकार
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साहित्योदय के ग्रुप में इस पटल पर आदरणीया वीणा शर्मा ‘सागर’ जी और इनकी रचनाओं पर लिखना हम सब के लिए गर्व की बात है ।अहा ! इनकी रचनाओं के क्या कहने। काव्य क्षेत्र में मधुर – कोमल , रंग बिरंगी भाव – धारा प्रवाहित की है — देखिए बानगी…
थी लाख उस पर बंदिशें वो संवर गया तो संवर गया,
गम जानलेवा था मगर वो उबर गया तो उबर गया।😄😄
और यह भी …
अब करता है जां निसार भी लेता है कहना मान भी ,
ये निगाह हो या कि दिल मेरा वो उतर गया तो उतर गया।😄😄
उनका कृतित्व पुरूषों के कृतित्व से स्वभाव व सौंदर्य में सर्वथा भिन्न रहा है।काव्य सृजन में लग रहा उनकी वाणी हृदय से नि: सृत होकर सहज प्रिय छंदों में व्यक्त हुई हैं ।बेबाकपन में अगर कहूँ कि आदरणीया वीणा शर्मा ‘सागर ‘ जी की कविताएं यदि मिट्टी के जलते हुए दीपक हैं तो पुरूषों की कविताएं स्फटिक की शिलाओं से बनी हुई मूर्तियां हैं ।
कवयित्री वीणा शर्मा सागर के बारे में सिर्फ यदा कदा पढ़ा हूँ– पर जितना पढ़ पाया हूँ उससे लगता है कि साहित्य सृजन में वो काफी ऊर्जावान हैं । न्यूजचैनल , दूरदर्शन से होकर मंचों पर काव्यपाठ में ढेर सारे तमगे लेनेवाली इस रचनाकारा से कोई परिचय नहीं है — इन्हीं के सृजन शब्दों में यदि कहना पडे तो यही कहूँगा कि ….
देखा नहीं कभी भी चश्मा उतार कर ,
उसने सभी को परखा सिक्का उछालकर
वीणा जी की पंक्तियाँ छोटी जरूर हैं पर मारक है —
बस आज इतना ही , शेष फिर कभी …..!
संजय ‘करुणेश’
प्रबंध निदेशक
साहित्योदय